Friday, April 19, 2013

खिसियाहट

आज अपने आप से कुछ खिसियाई सी हूँ।

कल सईद साहब से मुलाक़ात हुई, अरसे बाद। बहुत सी इधर उधर की बातें भी हुईं। उन्हें बीच बीच में अचानक मेरे किसी batchmate का नाम याद आता तो वे उसके बारे में पूछ लेते- क्यों वो क्या कर रहा है आजकल। इसी तरह उन्होंने जब ऐसे ही एक के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बता दिया जितना मुझे पता था, जो वैसे भी ज़्यादा नहीं था। वो और राघव एक ही समय पर एक ही निर्माता के साथ काम कर रहे थे जो दोनों की फ़िल्में बनाने वाला था। क्या हुआ पता नहीं, पर राघव की फ़िल्म बन गई और उसकी न बन पाई। लगा था ये बात सुनके कि फ़िल्म बनने के इतने निकट होते हुए भी न बन पाई, कुछ अफ़सोस करेंगे पर वो तो राघव का नाम सुनते ही जैसे भूल ही गए कि हम किस बारे में बात कर रहे थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट छा गई, और वे राघव के बारे में मुझसे पूछने लगे। वो कैसा है, क्या कर रहा है आजकल। इसके साथ साथ वो उसके बारे में भी कुछ कुछ कहते रहे। राघव वही ना जो बहुत laid back था। मैंने मुस्कुराते हुए हाँ में सर हिल दिया। What a wonderful open expansive soul he is, I love people like that कहते हुए सईद साहब ने हवा में हाथ उठा दिए मानो शब्द कम पड़ रहें हों।
यह बात सुनके बहुत दिनों बाद I remembered a feeling that I hadn't visited in a long, long time, or maybe the feeling hadn't visited me... a deep sense of loss. यह क्षण किन्तु क्षण भर का ही था, क्षण भर में लुप्त हो गया। कहीं से नहीं आया था और कहीं नहीं में ही गायब हो गया। कोई अचरज की बात नहीं। राघव और मैं बहुत पहले अलग हो गए थे, और अब तो वह नाममात्र को भी जीवन में नहीं है। प्यार भी बहुत पहले जाता रहा। अचरज की बात ये थी कि ऐसी फीलिंग आई भी, almost like a long lost muscle memory- involuntary and lifeless. बेवश और निर्जीव।

बहरहाल मुझे ये बात बहुत अनूठी लगी, मन किया किसी को बताने का। सोचा अनुषा को फ़ोन करूं पर नहीं किया। अगले दिन जब अरिंदम से फ़ोन पर बात हो रही थी तो सोचा उसे बताऊँ। पर फ़िल्म की और एडिट की बातों के बीच ये बात रह गई। या फिर मैंने छोड़ दी, जबकि उसे ये ज़रूर बताया की सईद साहब से मिल कर आई थी। परम का मेसेज आया कि वो खाने के बाद चाय पीने आएगा, तो सोचा उसे बताऊंगी। पर क्या वाकई बताऊंगी, इसकी सम्भावना कुछ कम ही थी, यह भी मैं जानती थी।
दोपहर को मानव घर आया था। बहुत इधर उधर की बातें हुई। वह अपनी एक फिल्म को लेके बहुत excited है, जिसमें वो एक्टिंग कर रहा है। पता नहीं इस उत्साह की वजह से ऐसा है, या फिर मानव ही ऐसा है, पर उससे बात करते वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे अपने आप से बात कर रही हूँ। जैसे मेरे शब्द उस तक पहुँचने से पहले ही फिसल जा रहें हैं। या फिर शब्द तो पहुँच रहें हैं- आखिर वो मेरी बातों का जवाब दे रहा था- मगर उनका अर्थ नहीं समझ रहा था, या समझना नहीं चाहता था, या समझने में असमर्थ था। ये बात मैंने उससे भी कही। उसने कुछ जवाब भी दिया था जो अब मुझे याद नहीं। खैर उसको तो बताना ही था मुलाक़ात के बारे में, वो भी मिला था सईद साहब से दो दिन पहले, और उसकी उसी फ़िल्म के बारे में उनसे चर्चा भी हुई थी। बात करते करते पता नहीं मुझे क्या सूझी, मैंने राघव वाली बात उस को बता दी। बात शुरू करते ही मैं पछताई। ऐसा लगा जैसे एक कोमल सी चीज़ जिसे मैंने इतना संभाल के रखा था, कैसे कठोर के हाथ दे दी। पूरी भी न बता सकी, बीच में ही रुक गई। पता नहीं उसे समझ में आया की नहीं कि बात अधूरी छूट गई है… कुछ राघव के और कुछ उसकी फ़िल्म के बारे में बात करते हुए हम आगे बढ गए।

एक अनुभव जो व्यक्तिगत था, एक क्षण जो महत्त्वपूर्ण था, विशेष था, अब न रहा।
मैंने अपने आप को थोड़ा कोसा, और फ़िर ये पोस्ट लिखने बैठ गई।

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