Monday, April 8, 2013

मैं सहम जाती हूँ


मैं सहम जाती हूँ। अपने आप को बहुत छोटा पाती हूँ।

पिछले कुछ दिनों में कई बार ऐसा हुआ। पहली बार जब मैं दिल्ली में थी, और मानव का फ़ोन आया। बातें करते करते अचानक ही वो मेरे काम के बारे में बात करने लगा (हमने साथ में एक फिल्म शूट की है, यानि कि उसने लिखी और डायरेक्ट की और मैंने शूट की)। शायद बात उसके दिमाग में ताज़ा थी तो उसे जैसे ही याद आई उसने फट से बोल डाली। उसने मुझसे कहा कि एक सिनेमेटोग्राफर के लिए एक्टर की नब्ज़ को पकड़ना बहुत ज़रूरी होता है। That one should react to what the actor is doing, and try and catch the beat of the actor. पर ये बात तो मुझे पता है! मेरे लिए ये अचरज ही नहीं शर्मिंदगी की बात थी की उसे ऐसा बोलने की ज़रुरत भी महसूस हुई। जिस चीज़ को मैं अपनी strength समझती थी, वो उसी बात को लेके अप्रसन्नता जता रहा था। जो मुझे लगा फिल्म की सबसे बड़ी strength होगी, क्या वो नहीं है? मैं बहुत सी documentaries शूट करती रही हूँ जिसमें ये एक महत्त्वपूर्ण गुण माना जाता है कि आप उस क्षण की और अपने पात्र की तरफ न सिर्फ़  सचेत रहें पर उसकी नब्ज़ को पकड़ पायें। और documentaries में तो दूसरा टेक भी नहीं मिलता! अपनी इस काबलियत पर मैं हमेशा काम करती रही हूँ। एक तरफ शायद थोड़ी घमंडी भी हूँ इस गुण को लेकर, और दूसरी तरफ हमेशा डरी रहती हूँ की कहीं घमंड इतना ना बढ़ जाए की गुण हाथ से जाता रहे। पर इस फिल्म में, जो मेरे अब तक के career की सबसे महत्त्वपूर्ण फिल्म होगी, जिसे मैंने भरपूर प्यार और श्रद्धा के साथ शूट किया, क्या मैं असफल रही? Did I let down Manav as director and all those wonderful actors? And as a consequence, did I fail the film? इस बात से मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं सहम गयी।
शायद मानव को भी इस बात का एहसास हुआ क्योंकि कुछ ही देर बाद उसका फिर से फ़ोन आया और वो बोला कि the film is looking stunningly beautiful लेकिन एक दोस्त और शुभचिंतक होने के नाते उसे लगा की वो मुझे ये feedback भी ज़रूर दे। इस बात की मैं आभारी हूँ और मानव से इतनी अपेक्षा तो रखती हूँ कि वो मुझे सच्ची और खरी ही फीडबैक दे।

मैं वापस मुंबई आई। पता नहीं क्यों वापस आते वक़्त मन कुछ विचलित था। मन में ये सवाल था कि जीने का मकसद क्या है। क्यों जी रही हूँ, किसके लिए। गलत मत समझिये, ऐसा नहीं है कि मेरे जीवन में प्यार की कोई कमी है। मेरा एक सुन्दर परिवार है, जिसके सभी लोग मुझसे बहुत प्यार करते हैं। बहुत से अच्छे दोस्त हैं। रोमांचक प्यार की बात की जाए तो उस मामले में भी मैं बहुत भाग्यवान रही हूँ। अभी जीवन में कोई न सही पर that is by choice. लेकिन फिर भी ऐसा लगता है की क्यों जिया जाए। शादी करके, बच्चे पैदा करके हम अपने आप को बहला तो लेते हैं की हमारे पास जीने का मकसद है, पर क्या वाकई में वो है, या हम जीवन के खालीपन को रिश्तों से भरने में जुटे हैं?

मुंबई वापस आके आधा दिन तो सफ़ाई में गया। शाम को जब मेल चेक की तो देखा फैज़ा की एक मेल आई हुई थी। गोलीबार में फिर से लोगों के घर तोड़े गए थे, और कुछ 43 परिवारों ने मैदान में रात गुज़ारी थी। बात दिल को छू गयी पर समझ में नहीं आया क्या करूं। अगले दिन एक दोस्त का मेसेज आया कि वो पास ही है, मिलने आ जाए? वो आया, उसी दिन इत्तेफ़ाक से शायोनी भी मानव के घर आई हुई थी सो शाम साथ गुज़री। बहुत बातें हुई, drinks के साथ। रात देर से सोई थी फिर भी सुबह जल्दी आँख खुल गयी। दिन की शुरुआत फिर से गोलीबार की खबर और तस्वीरों से हुई। जिस रात मैं शराब पीते हुए बेकार की बातें कर रही थी, उस रात गोलीबार के लोग सड़क पर थे। पर ये तो रोज़ ही होता है, कितने ही लोग रोज़ ही सड़क पर होते हैं, इसमें क्या नया है? क्यों मैं अपने आप को नकली सी लगती हूँ?
बहुत मुश्किल होती है। किस बात से बंधू, किससे दूर रहूँ? किससे प्रभावित होऊं, किससे नहीं। कभी लगता है कि ये भी एक तरह का घमंड ही है की हमें 'कुछ करना चाहिए', कि हमारे कुछ करने से कोई फ़र्क पड़ सकता है। अपने ही सवालों से कभी तो थक जाती हूँ, और कभी ऐसा लगता है कि जवाब कितना सरल है। हमारे वश में तो कुछ है ही नहीं, ये तो दुनिया का संतुलन है। The only thing to do, the only thing one can do, is to follow one's heart. जो काम अच्छा लगे, जिस काम से ख़ुशी मिले, बस वो करता चल। अगर आप सच्चे दिल से काम कर रहें हैं, तो chances are that you are adding value to the world. फिर ये ज़रूरी नहीं है कि आप खादी के कपडे और कोह्लापुरी चप्पल पहन कर स्लम में काम करें। शायद मैं बहुत स्वाभाविक सी बात कह रही हूँ। लेकिन ये बात मुझे रह रह के अपने आप को ही बतानी पड़ती है। शायद मेरी मध्य वर्गीयता भी मुझ पर कभी कभी भारी पड़ती है। और इस बात से भी मैं बहुत खुश हूँ। ऐसा लगता है कि जीवन में अगर कोई तकलीफ न हो, या तकलीफ की तरफ़ संवेदनशीलता न हो, तो जीवन कितना नीरस होगा।
इस बात में भी घमंड की हलकी सी बू तो है!

आज फ़िर मानव से मुलाक़ात हुई। वो टैगोर पर नाटक की तैयारी में जुटा है। कितना जोश है उसकी बातों में और कितना विश्वास भी। पिछले कुछ महीनों मैं उससे काफ़ी प्रभावित रही। उसके काम के बारे में पहले भी लिख चुकी हूँ। हालांकि उसका काम मुझे पसंद है, पर कुछ बातों से, और एक नाटक से शिकायत भी है। पर इस बात की दाद देती हूँ कि वो जो करता है, पूरी शिद्दत, पूरे तन मन से। वो एक तेज़ बहती नदी की तरह है, उसके साथ काम करना मतलब उसके साथ बहना है। मतलब एक तरीके का समर्पण। अगर आप बहने को तैयार नहीं हैं तो या तो आप उसके साथ काम नहीं कर पाएंगे, या अपने काम में आनंद नहीं ले पाएंगे, या वो ही आप को निकाल बाहर करेगा। बहरहाल, मुझे उसकी energy और enthusiasm हमेशा से बहुत पसंद है। आज भी उसकी बातें सुनी तो एहसास हुआ कि वो कितना काम कर चुका है, और कितना ही और करने में जुटा है। मैं फ़िर सहम गयी। अपनी ज़िन्दगी कुछ फीकी सी लगने लगी। इसलिए नहीं की मुझे अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं हैं, या मैं तुलना में लगी हूँ- वो तो बेवकूफी होगी। शायद इसीलिए कि अपनी क्षमता का एहसास है...
पर उसमें भी तो कोई नयी बात नहीं है। मैं अकेली तो नहीं हूँ ऐसी जो अपनी क्षमता के अनुसार काम न पाएगी न कर पाएगी...

Inspired by Manav, I wrote this post (almost) in Hindi. It took two pegs of rum, three cigarettes, thrice as long and some help from the English-Hindi shabdkosh :)

1 comment:

poosha said...

कुछ झिझकता से ये comment लिख रही हूँ। शायद लिखना नहीं चाहिए बिना अनुमति के। शायद क्या, निश्चय ही लिखना नहीं चाहिए बिना अनुमति के। फ़िर सोचती हूँ कि marginalia क्या है- वह जितनी अपने से कही बात है, उतनी ही public भी तो है। न जाने एक किताब की क्या यात्रा होगी, वो कब किसके पास पहुंचेगी और कौन उन शब्दों को पढ़ेगा। और फिर marginalia एक तरीके की श्रधांजलि भी तो है- लेखन को और लेखक को... कोई लेखन जो आपको इस तरह छू जाये कि आप अपने खयाल उसी वक़्त उसी लेखन के किनारे दर्ज कर देना चाहे जहाँ से वे उत्तपन हुए थे। ऐसे शब्दों का तो रिश्ता ही है किताब से, लेखक से और लेखन से और शायद कुछ हद तक समय से भी...।
बहरहाल मैंने मानव से किताब उधार ले कर, निर्मल वर्मा जी की कहानी पढ़ी 'बुखार'। यह कहानी संग्रह की अंतिम कहानी थी, सो कहानी के साथ साथ किताब भी खत्म हो गई। आखिरी पन्ने पर मानव ने ये शब्द लिख छोड़े थे-
'धीरे बहते हुए... कुछ अवशेष खिचें चले आयें हैं साथ में...। यहाँ लगता है कि तालाब सही है... वह एक जगह थम है, जो भी आता है उसकी खुद की ज़िम्मेदारी है। बहते पानी की पीड़ा अब समझ में आती है...। वह रास्ते चलते बहुत से चीज़ें बटोर लेता है। फिर उन उजड़ी टूटी चीज़ों के प्रति उसकी एक ज़िम्मेदारी बन जाती है। बहना भारी होने लगता है।'
In the context of what I wrote about him in the post, this seemed appropriate!